चेहरे पर चेहरा लगाकर जी रहा है आदमी↔
खुद से भी खुद को छुपाकर जी रहा है आदमी↔
कहने को तो हम अपने को बेबाक कहते हैं↔
मगर तो सच ये है कि ❣
सच को छुपाकर जी रहा है आदमी↔
देखने को हर किसी के होठों पर मुस्कान है↔
दर्द सीने में दबा कर जी रहा है आदमी↔
ख्वाहिशों के बोझ में दब सी गयी है जिन्दगी↔
फिर भी ये बोझा उठाकर जी रहा है आदमी↔
जिस तरफ भी देखिये बेचैनियाँ है दर्द है↔
जिन्दगानी को भुलाकर जी रहा है आदमी↔
आदमी को आदमी पर अब भरोसा ही नहीं↔
बस्तियों में जानवर बन जी रहा है आदमी↔
मर चुकी इंसानियत धर्म भी बाकी कहाँ↔
मर रहे है हर रोज,फिर भी जी रहा है आदमी↔
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शुभ-प्रभात आप सबका समय शुभ एंव मंगलमय
हो मेरी यही कामना है ↔🙏🙏🙏🙏🙏
लेखक :↔ प्रभाकर राज ↔
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